हरीश वासवानी-बीती बातें

इस 13 अप्रैल को उन्हें गुजरे 10 वर्ष हो जाएंगे। उन्हें से मेरा मतलब हरीश वासवानी से है।

ठिगना कद, गेहूंआ रंग, सफेद मूछें, मांग निकाले बाल, पतली फ्रेम का चश्मा, आकर्षक चेहरा और बोलती सी आंखें। क्या यही थे- हरीश वासवानी।

या राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक, सिंधी भाषा के रचनाकार, सिंधी नई कविता के जनक, आलोचक यह परिचय है- हरीश वासवानी का।

उन्हें यदि समझना है तो हमें ज्यादा गहराई से विचार और पड़ताल करना पड़ेगी। हरीश वासवानी भी ताउम्र यही करते रहे। इस कारण कवि, कहानीकार से कहीं ज्यादा वह विचारक, आलोचक थे।

खान अब्दुल गफ्फार खान के बलूचिस्तान में उनका जन्म हुआ। शायद बलूचिस्तान की मिट्टी से स्वाभिमान, साफगोई उन्हें जन्म घुट्टी की तरह मिली थी। अब इन चीजों को कौन पसंद करता है? इसलिए उन्हें भी कौन याद रखता।

सन 1940 में उनका जन्म हुआ। बचपन में दिखाए गए आजादी के सपने जवानी आने तक मिट्टी में मिल गए। सामने थी परेशानियां और केवल परेशानियां। विस्थापन का दर्द। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद परिवार के साथ सौराष्ट्र में आए। फिर अजमेर, आगरा, दिल्ली होते हुए आदिपुर में बस गए। मोह भंग की स्थिति थी। मोह भंग व्यवस्था के प्रति था। चाहे वो व्यवस्था लेखन में रही हो, समाज की परंपरा-रूढ़ियों में रही हो। वे इसे ललकारते रहे या फिर पलायन करते रहे। हिंदी में भी नई कहानी के दौर के लेखक पुरानी पीढ़ी को आदर्शवाद का बहाना लेकर ललकार रहे थे। यथार्थ, सेक्स, कुंठा, संत्रास उन्हें आकर्षित कर रहे थे। सिंधी में भी हरीश वासवानी इससे अछूते नहीं रहे। सिंधी साहित्य में भी वह यही कर रहे थे।

एक बार चर्चा के दौरान पापा के साथी गणेश मंत्री का नाम आया तो उन्होंने बताया था कि मंत्री जी के साथ ही उनका भी चयन 'धर्मयुग' में उप संपादक के रूप में हुआ था। कुछ समय काम किया फिर छोड़ कर वापस आदिपुर आ गये।

बाद में वे कमलेश्वर के समानांतर कहानी आंदोलन में सक्रिय रुप से जुड़े रहे। 'कच्छमित्र' में कालम लिखते थे। बंद करते थे। फिर लिखते थे। एक बार फिर बंद कर दिया। उसी दौर में राजेंद्र यादव 'हंस' में 'न लिखने के कारण' चला रहे थे। मैंने मजाक पूछा- 'आप पर भी 'हंस' का असर हो गया?'

वे भी हंस दिये। फिर बोले-'गंभीर लेखन को गंभीरता से कौन लेता है अब!'

लीक से हटकर काम करना और दूसरों से अलग दिखना उन्हें भाता था। उनकी हर एक पुस्तक का शीर्षक लीक से हटकर था। 40ऐ74, 40ऐ80, 40ऐ84, बुडी ऐ टे बुडियुं (शून्य से तीन शून्य) उनकी पुस्तकों के नाम थे। इसमें 40 उनका जन्म वर्ष और पीछे के अंक पुस्तकों के प्रकाशन का वर्ष होता। इसमें 40ऐ84 पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। इस अवसर पर जब उनका सम्मान किया गया तो विनम्रता से उन्होंने उन्होंने कहा था- 'मैं आप में से एक ही हूं। समुंदर के पानी की तरह। बस एक लहर ऊपर उठी और उसका चित्र खींच लिया गया है।'

हम एक दो बार आकाशवाणी की परिचर्चा में साथ में रहें। उनके साथ कोई मंच साझा करना यानी पूरी तैयारी और तेवर के साथ बात रखना होता था।

जब वे बहस के मूड में होते थे तो मुझे 'बंधु' कह कर संबोधित करते थे। जब सहज होते हैं तो विवेक के नाम से पुकारते थे। मार्क्स ने उन्हें प्रभावित भले ही किया हो मगर वे खींचे बुद्ध के द्वारा ही गए। बुद्ध के विचारों का प्रभाव उन पर गहरा था।

स्वाभिमानी भी इतने कि अपनी व्यक्तिगत परेशानियों में किसी को भागीदार नहीं बनाते। जब परेशानी का स्तर बढ़ जाता तो वे खुलने के बजाय कछुए की तरह खोल में घुस जाते। अपनी मां की मृत्यु का समाचार उन्होंने चार लोगों को ही दिया था। कांधा देने के लिए जरूरत थी। शादी विवाह में वे नहीं जाते थे।

सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने लोगों की मनोवैज्ञानिक परेशानियों से मुक्ति में सहायक होने के लिए काउंसलिंग सेंटर खोलने का मन बनाया। भूकंप के बाद मकान गिर जाने, पत्नी का हाथ कट जाने के कारण अपनी परिस्थितियों से मैं बेहाल था। एक दिन उनका फोन आया बोले- 'विवेक, तुम्हें कल के कार्यक्रम का संचालन करना है।'

संचालन का काम मेरे लिए रुचिकर नहीं रहा। उनका संचालन शहर देख चुका था। उनके शब्दों का चयन, आवाज में आरोह-अवरोह, लय-गति जिस स्तर पर थी मैं उसके सामने कुछ भी नहीं था। मगर उन्हें मना करने का ना हौसला था ना हिम्मत। कुछ व्यक्तिगत कारण भी थे। मैंने उन्हें जानकारी दी। आदेश के स्वर में वे बोले- 'वह सब तुम देख लेना। मेरी इस काम में एक सहयोगी है, वह तुम्हें इस काम में भी सहयोग देगी।'

दूसरे दिन तय समय पर मैं उनके घर पहुंचा। सहयोगी नदारद थी। वे सहज। खुद ने ही अतिथियों के बारे में, कार्यक्रम की रूपरेखा के बारे में बताया और अपने काम में लग गए।

एक अच्छे वक्ता, संचालक के कार्यक्रम का संचालन करना कितना कठिन होता है और उसके बाद आपकी पीठ थपथपाई जाए तो आनंद ही कुछ अलग होता है। यह मैंने उस दिन महसूस किया।

रास्ते चलते उनसे कई बार मुलाकात हो जाती और सड़क पर बात करते करते हैं लंबा समय गुजर जाता। मृत्यु के कुछ समय पहले अचानक बीमार हो गए। गांधीधाम के अस्पताल में भर्ती थे। ड्रिप चढ़ी हुई थी। पेशाब की नली लगी थी। निस्तेज। आंखें बंद किए लेटे थे। मुझे देख कर चेहरे पर चमक आ गई। मुंह से शब्द निकालना मुश्किल हो रहा था और वे निचिकेत के जीवनमुक्ति प्रसंग की चर्चा करने लगे।

मैंने कहा-'आप आराम कीजिए। ठीक हो जाइए बाद में बात करेंगे।'

वे दो तरह का जीवन जी रहे थे। एक- सजृक, आलोचक का। उत्साह, जुड़ाव भरा। दूसरा- जीवन का अर्थ और जीवन के बाद क्या का उत्तर खोजता। नैराश्य, आध्यात्मिक विचारक का। वे मुक्त होना चाहते थे। बंधनों से। जीवन से।उनके इस दूसरे रूप को हम समझ नहीं पाए। यह बाइपोलर की तरह कठिन सामन्यजस बिठाना था।

वे बड़े दिल के थे। हमारी आयु में बहुत अंतर था। 90 के दशक में जब 'हंस' मैं मेरी लघु कथा- 'रिश्ते और जंगल' प्रकाशित हुई तो उन्होंने प्रशंसा भी की थी। एक लघुपत्रिका के लिए मैंने उनका इंटरव्यू लिया था। भूकंप के कारण समय पर छप नहीं पाया। प्रश्नों के दौरान मैंने उनसे एक तीखा सवाल किया था- 'क्या आपके पास शब्दाडंबर नहीं है? शब्दों से खिलवाड़ के कारण आपकी रचनाएं क्षणिक असर वाली नहीं रह जाती?'

मुझे याद आता है ऐसा ही एक प्रसंग उनके समकालीन सिंधी रचनाकार, भाषा शास्त्री की कहानी पर आकाशवाणी में चर्चा के दौरान आया था। और वे साहित्यकार बगले झांकने लगे थे। प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव से कहकर वह हिस्सा उन्होंने हटवा दिया था। हरीश वासवानी सहज रहे और प्रश्न का सटीक उत्तर भी दिया और अपनी कमजोरी को भी स्वीकारा।

हरीश वासवानी का जाना एक व्यक्ति का जाना नहीं था। चीजों को अलग आयाम से दिखाने वाले झरोखे का बंद हो जाना था। सिंधी नई कविता के जनक का जाना भी था। उन जैसे आलोचक विचारक के दबाव के कारण कई सिंधी लेखकों ने स्तरी रचना हमें दी,यह भी याद रखने का कारण होता है।

अब न वैसे लेखक रहे। न लेखकों का सम्मान करने वाला समाज रहा। न पाठक रहे। ऐसे में उन्हें भुला देना ही सही है।

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