कहानी -सावधान,इधर जंग जारी है!

फोन फिर बज उठा।

क्षण भर के लिए उनकी आंखें सिकुड़ी माथे पर बल पड़े, चेहरे पर तनाव झलका और फिर हॅंस दिए।

"बड़ी खतरनाक चीज है यह फोन भी।" कहते हुए उन्होंने फोन उठा लिया।

"कौन?....... चमन सेठ! कैसे चमक गए भाग हमारे! हां, ठीक हूं। हां, भाई अभी तो पीछे हैं। अगले दौरों में आगे आ जाएंगे। तीन चार सौ से पीछे होने से हार नहीं हो जाती। ….. अरे चमन सेठ, क्यों मजाक करते हो। मेरा कैसा सहयोग। सब आपकी मेहनत है। …. जरा धीरे बोलो कोई सुन लेगा तो मेरी मिट्टी पलीत हो जाएगी। हां ठीक है …. देखते है।" उन्होंने फोन रख दिया।

"आज तो चमन सेठ हमें बहुत याद कर रहे हैं कल तक तो गालियां देते थे।"

"इज्जत तो आपकी हमारी भी दांव पर है, भैया सा'ब"

भैया साहब कुछ कहना चाहते थे परंतु फोन की घंटी ने उन्हें रोक दिया। इस बार माथे पर सिलवटें ज्यादा देर तक रही। चेहरे पर गुस्सा झलक आया। बोले-"मुंशी जी, तुम्हारा कोई दुश्मन हो तो उसके घर पर टेलीफोन लगवा दो।"

मुंशी जी उनकी बेचैनी, पीड़ा को समझते थे। इस कारण चुप रहे।

"कौन? रामेश्वर….. कहां से बोल रहे?"

"कलेक्टर कार्यालय से भैया सा'ब। हालत गंभीर है। पन्द्रह का चूना लग जाएगा।" फोन से आवाज उनके कानों में आई।

"कलेक्टर अपने कार्यालय को पुतवा रहे तो हालत गंभीर कैसे हो गए!"

"भैया सा'ब आप भी मजाक कर रहे हैं। विपक्षी नेता पन्द्रह हजार वोटों से पीछे हैं हमारी पार्टी से। आप के बल पर मैंने शर्त लगाई थी। मैं शर्त हार जाऊंगा।"

"कुछ दिनों पहले मेरी जीत पर तुम पचास जीते भी थे। भूल गए।"

"भैया सा'ब……."

"ठीक है बाद में बात करेंगे।" रामेश्वर की बात सुने बिना ही उन्होंने फोन रख दिया।

सही मायनों में भैया साहब के लिए आज का दिन अच्छा नहीं रहा। उनकी पार्टी चुनाव जीत रही थी और वे चुनाव नहीं लड़ते हुए भी हार रहे थे। कैसी विडंबना थी।

भैया सा'ब सांसद हैं। जिले के वरिष्ठतम राजनीतिज्ञों में वे कभी गिने नहीं गए। अचानक एक के बाद एक जिले की राजनीति के बुड्ढे स्तंभ ढह गए। उसका फायदा भैया सा'ब को हुआ। पार्टी ने उन्हें लोकसभा के चुनाव के लिए टिकट दे दिया। चुनाव के वक्त आंधी चली और उस आंधी में उड़ कर वे दिल्ली पहुंच गए। दो साल बाद जब विधानसभा के चुनाव की घोषणा हुई तो भैया सा'ब ने चाहा कि उनके अपने विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए टिकट उनके पुत्र को मिले। उनका विचार गलत भी नहीं था। बाप की सत्ता बेटा तो संभालता ही आया है। मगर उनके प्रयास असफल रहे। पार्टी ने संतुलन की दृष्टि से या अन्य कारणों से टिकट पार्टी में उनके विरोधी गुट के व्यक्ति को दे दिया। भैया साहब अजीब पसोपेश में पड़ गए। यदि वे अपनी पार्टी के विरोधी गुट के उम्मीदवार को जीतवाते हैं तो खुद का प्रभामंडल कम करते हैं। यदि विरोधी पार्टी के उम्मीदवार को जीतवाते हैं तो हाईकमान की नजरों में आते हैं। सांप - छछूंदर सी स्थिति हो गई उनकी। कोई एक रास्ता तो उन्हें चुनना ही था। उन्होंने दूसरा रास्ता चुना। उन्होंने विरोधी पार्टी के नेता को समर्थन देना तय किया।

वे खुलकर सामने आने की स्थिति में नहीं थे। इस कारण सामने नहीं आए। उनके दाएं-बाएं, मुंशी जी और रामेश्वर खुले तौर पर विरोधी पक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करते रहे। उनका लड़का भी छिपे तौर पर विरोध में शामिल हुआ। आज इन सब का सम्मिलित प्रयास भी असफल होता दिख रहा था।

विरोधी पार्टी की हार सुनिश्चित दिख रही थी। कुछ दिनों पहले पार्टी जिलाध्यक्ष ने इन लोगों को कारण बताओ नोटिस दे दिए थे। मुंशी जी को अब उसकी चिंता हो रही थी। उन्होंने पूछा - "भैया सा'ब शो कॉज नोटिस का क्या करने का है?"

"देखते हैं।" कहकर वे कुछ सोचने लगे।

भैया सा'ब का भविष्य दांव पर लगा था। अब हर चाल ज्यादा सोच समझ कर चलना और भी जरूरी हो गया था। वे कुछ सोच रहे थे कि दरवाजे की आवाज ने उनका ध्यान भंग कर दिया। उनका लड़का था। परेशान बेहाल सा। उसे देखकर मजबूरन वे अपने चेहरे पर मुस्कान ले आए।

"पापा, सब गड़बड़ हो गया।"

"क्यों? क्या हम सांसद नहीं रहे! राष्ट्रपति ने लोकसभा भंग कर दी!"

हंसी उनके चेहरे पर थी। जब भी वे पराजय महसूस करते है, हंसी का मुखौटा औढ़ लेते हैं। या फिर ठहाके लगाने लगते हैं।

"आप भी मजाक करते हैं पापा ! विपक्षी पार्टी के अनुभवी नेता दो कौड़ी के, राजनीति के नौसिखिया से हार रहे हैं। हमारा समर्थन होते हुए भी।"

"बेटा, हार को जीत में और जीत को हार में बदल देना ही राजनीति है। अच्छा हुआ जो पार्टी ने तुम्हें टिकट नहीं दिया।"

उनकी गंभीरता को देखकर लड़का चुप हो गया। वे भी चुप रहे। फिर मुंशी जी की और देख कर बोले- "ऐसा करते हैं मुंशी जी, हम लोग केशव के चुनाव क्षेत्र में चलते हैं। वही आगे की सोचेंगे।"

वे गाड़ी में सवार हो गए। गाड़ी मुंशी जी चला रहे थे। पूरे सफर के दौरान भैया सा'ब चुप ही रहे। मुंशी जी जानते थे कि ऊपर से हंसी का लबादा ओढ़े रहने वाले भैया सा'ब भीतर से कितने खोखले हैं। राजनीति में उनका कद बढ़ने लगा तो पांव जमीन छोड़ने लगे। अपना कद और बढ़ाने के लिए वे दांव खेलने लगे । जब उनके दांव गलत पड़ने लगे तो वे जमीन से उखड़ने लगे। वे खोखले होते गए। इतने खोखले कि कभी-कभी अपनी परछाई से भी डरने लगते। उनकी अगली चाल क्या होगी वह चलने से पहले किसी को भी नहीं बतलाते।

कार जाकर केशव के विजय के अवसर पर निकाले जा रहे जुलूस के पास रुकी। अपने बगुले सी सफेद धोती एक हाथ से संभाले वह कार से उतरे। दूसरे हाथ का पंजा उन्होंने हवा में उठा दिया। वातावरण नारों से गूंज उठा। केशव ने उन्हें देखा। धीमी गति से उनके पास आया। उन्होंने कंधा थपथपा कर उसे गले से लगा लिया। एक बार फिर वातावरण नारों से गूंज उठा। उन्हें लगा, उनके आने पर लोगों ने उस उत्साह का प्रदर्शन नहीं किया, जो उन्हें पहले अक्सर महसूस होता था। केशव भी उन्हें छोड़कर दूसरों से मिलने चला गया। उनका डरपोक मन इसे साधारण घटना नहीं मान सकता था।

इसे साधारण घटना नहीं समझने का कारण भी था। केशव को टिकट दिलवाने में वे सक्रिय थे। केशव राजनीति में उनका आदमी समझा जाता था। केशव जब राजनीति में नया था, तब एक दिन उसने पूछा था- "भैया सा'ब आपको राजनीति में लाएं पंडित जी, आपको टिकट भी पंडित जी के कारण मिलता रहा। आप मंत्री और निगमों के अध्यक्ष भी उन्हीं की बदौलत बने। पंडित जी को जब पार्टी से निकाल दिया गया तो उनका साथ देने के बजाय आप ने उनकी गतिविधियों को पार्टी विरोधी बतलाया। इस कार्य के लिए पार्टी अध्यक्ष को बधाई देने भी पहुंच गए!"

प्रश्न सीधा था। केशव के बजाय किसी अन्य ने यह प्रश्न किया होता तो वे गोलमाल उत्तर दे देते। केशव राजनीति में था। उनका चेला था। इस कारण उन्होंने सीधा उत्तर दिया- "मुर्दे न तो दूसरे का बोझ ढो सकते हैं। ना उनके कंधों पर चढ़कर आसमान को छुआ जा सकता है। यदि किसी के कंधे का इस्तेमाल सीढ़ी की तरह करना है तो वह कंधा किसी जिंदा आदमी का होना चाहिए। तुमने भी देखा होगा हाल उन लोगों का जो पार्टी से अलग हो गए या निकाल दिए गए। समुद्र के पानी में जीने वाली मछलियां नदी की पानी में मर जाती है।"

उन्होंने जब उत्तर दिया था तब सोचा भी नहीं था कि जिन शब्दों को वे अपनी ढाल बनाकर उपयोग में ला रहे हैं, वे ही शब्द कभी तलवार बनाकर उनके सामने, उनके विरुद्ध उपयोग में लाए जा सकेंगे। उन्होंने इन विचारों को जेहन से झटक दिया। वे अभी मरे नहीं है। पार्टी के सक्रिय सदस्य हैं। सांसद हैं। केशव की उपेक्षा को उन्होंने अपना डर,भ्रम समझा।

धीरे-धीरे लोगों के उत्साह में कमी आती गई। लोगों से छुटकारा पाकर केशव उनसे मिला। थोड़ी देर में वे दोनों मुख्य बात की ओर आ गए। केशव गंभीर स्वर में बोला- "यह अच्छा नहीं हुआ भैया सा'ब।"

"क्या? तुम्हारा चुनाव जीत जाना।" वे हंसकर बोले।

"यह तो समय ही बतलाइएगा। अभी तो आप सांध्य दैनिक का आज का अंक देखिए।" केशव गंभीर बना रहा। उसने कुर्ते की जेब से अखबार निकालकर उनके सामने रख दिया।

उन्होंने अखबार देखा। 28 पॉइंट के बोल्ड लेटर में हेडलाइन थी- "वाह रे सांसद! अजब तेरी माया, बेटे से दारू बंटवाया।"

उन्होंने हेडलाइन पढ़कर ही अखबार रख दिया। अंदर क्या लिखा होगा वे अच्छी तरह से जानते थे। यह घटना पांच दिन पुरानी हो चुकी थी। राजनीति की रेस के वे पुराने घोड़े थे। जानते थे, समझते थे कि यदि वोट लेना है तो नोट भी खर्च करना पड़ते हैं। अपने पुराने विधानसभा क्षेत्र में पार्टी की हार जीत से ही उनका प्रभाव तय होना था। प्रभाव को बनाए रखने के लिए पैसा खर्च करना भी आवश्यक था। उनका लड़का अपनी पार्टी की जीप में देशी दारू लेकर लोगों में बांटने गांव में जा रहा था। उसके साथ विपक्षी पार्टी के एक दो लोग और थे। ये लोग गांव के पास तक पहुंचें ही थे कि उधर से पार्टी की दूसरी जीप में पार्टी के उम्मीदवार और तहसील अध्यक्ष आ रहे थे। पार्टी की जीप देखकर उन्होंने रुकने का संकेत दिया। मगर जीप में तो गड़बड़ थी। उनके लड़के ने जीप रोकने के बजाय भगाना उचित समझा। अध्यक्ष महोदय ने उनके लड़के को देख लिया था। उसकी पार्टी विरोधी गतिविधियों की भी अध्यक्ष को जानकारी थी। इस कारण पीछा करना उचित समझा। गांव की सकरी गलियों में वे लोग पकड़े गए। जीप में दारू पकड़ा गया और गांव वालों के बीच उसकी फजीहत हो गई।

इस घटना को समाचार बनाकर प्रकाशित करने की हिम्मत किसी भी समाचार पत्र ने नहीं की। फिर चाहे वह जिले में उनके विरोधी गुट, पार्टी का समर्थक क्यों न हों।

आज विरोधी पार्टी का उम्मीदवार चुनाव में पराजित क्या हो रहा, लोगों ने उन्हें पराजित मान लिया। समाचार प्रकाशन का अर्थ था कि लोग उनका प्रभाव कम कर आंकने लगे थे।

वे इस घटना को मजाक में नहीं उड़ा सकते थे। सामने बातों से मूर्ख बन जाने वाली जनता नहीं थी। सामने था उन्हीं की समान नकाब पहनकर अभिनय करने वाला व्यक्ति। और अब तो वह व्यक्ति नकाब के पीछे चेहरे पर उभरने वाली लकीरों तक को पढ़ने में माहिर हो गया था। उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया- "देखो केशव, राजनीति में ऊंच-नीच चलती रहती है। इसका प्रभाव भी ज्यादा दिनों तक नहीं रहेगा। तुम समझते हो कि इस घटना के आधार पर मुझे पार्टी से निकाला जा सकता है तो तुम मेरा साथ छोड़ सकते हो। चुनाव के जो नतीजे आए हैं उसके अनुसार मुख्यमंत्री तो हमारे ही गुट का बनेगा।"

केशव इशारा और धमकी समझ रहा था। तुम मुझे छोड़ों। देखता हूं, तुम कोई पद कैसे पाते हो!

"मेरी न तो ऐसी इच्छा थी, न है। मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता। मामला और बिगड़े उससे पहले संभालना जरूरी है। मेरा फर्ज भी।" केशव बोला।

वे संभल गए। मुस्कुराहट पर चेहरे पर तैर आई। जैसे कोई मोर्चा जीत लिया हो।

"संघर्ष तो चलता ही रहता है। संघर्ष का दूसरा नाम ही जिंदगी है। तुम मेरा साथ देते रहो फिर यह तो क्या, कई जंग जीत जाएंगे हम!" उन्होंने कहा।

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आंखिन देखी,कागद लेखी

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