अंधेरे में रोशनी करता दीया -सच का सामना (पुस्तक समीक्षा)


         इतिहास गवाह है- सत्ता का नशा हमेशा विचारधारा को निगल जाता है। समझौते, ढोंग करवाता हैं। सत्ता पाने के बाद कोई भी सत्ता छोड़ना नहीं चाहता। सत्ता को बनाए रखने के लिए शोषण, अत्याचार, भेदभाव, भ्रष्टाचार, कदाचार और जो भी गलत काम हो सकते है-करता है। ऐसे में गांधी विचारधारा का मूल मंत्र- पवित्र साध्य के लिए पवित्र साधन की बात कौन याद रखना है! विचारधारा के बजाय गांधी सत्ता की सीढ़ी की तरह उपयोग में लाये जाने लगते हैं। आजादी और लोकतंत्र के लिए यह खतरे की निशानी होती है। 

       आजादी और लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए हर समय पहरेदारी और सचेत रहने की जरूरत होती है। किसी न किसी को 'जागते रहो' का नारा लगाते रहना पड़ता है।

         लंबे अरसे से अपने सीमित साधनों और क्षमताओं के साथ 'महावीर समता संदेश' के संपादक श्री हिम्मत सेठ अपने संपादकीय और लेखों से यही काम करते रहे। 'सच का सामना'- पुस्तक उनके इन्हीं संपादकीय लेखों का संग्रह है। पाक्षिक पत्रिका के लेख/विचार उत्तेजना पैदा तो कर पाते है पर उनका प्रभाव क्षणिक ही होता है। उनका वही प्रभाव होता है जो आसमान में चमकी बिजली का होता है। जनरेटर से जो बिजली पैदा होती है वह लगातार रोशनी देती है। 'सच का सामना' भी एक जनरेटर है।

        'महावीर समता संदेश'  के सम्पादक अपनी सोच, अपनी विचारधारा को लेकर बहुत स्पष्ट है। 26 जनवरी 2012 के आलेख में वे लिखते हैं- "महावीर समता संदेश लगातार एक नई और बेहतर दुनिया बनाने के प्रयास में लगा हुआ है। एक ऐसी दुनिया जो इस दुनिया से बेहतर हो। बेहतर न केवल तथाकथित विकास और ऐसी आराम की दुनिया, बल्कि समता और संपन्नता की दुनिया। शोषण और जुल्म विहीन दुनिया, एक ऐसी दुनिया जिसमें न उंच-नीच हो और न ही गरीबी-अमीरी  हो। न लिंग भेद हो, न रंग भेद हो, न जाति के नाम पर लोगों के साथ अलग-अलग तरह का व्यवहार हो। एक ऐसी दुनिया जहां व्यक्ति को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार मुहैया कराया जाये। एक ऐसी दुनिया जिसमें हथियारों के लिए कोई स्थान न हो,..." (पृष्ठ 132 'सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है महावीर समता संदेश')

          विकास नापने का उनका पैमाना सरकारी पैमाने से निश्चित रूप से अलग है। वे खर्च को विकास का पैमाना नहीं मानते। उनके अनुसार- "विकास प्रमाणीकरण में सबसे बड़ा पैमाना, जिसका हमने ऊपर भी उल्लेख किया है- गैर बराबरी ही हो सकता है। हमें देखना होगा कि पहले पायदान पर खड़ा व्यक्ति और सबसे नीचे खड़े व्यक्ति में इन 5 वर्षों में कितनी गैर बराबरी कम हुई है? व्यक्ति के बाद क्षेत्र की गैर बराबरी जांचनी चाहिए।" (पृष्ठ 312, 'किसी भी प्रदेश के विकास की प्रमाणिकता क्या है?')

           हिम्मत सेठ  चुनावी राजनीति में नहीं है और इसीलिये वे गरीब के साथ खड़े रहने का ढकोसला नहीं करते। उनका अखबार आज के समय के साथ कदम मिलाकर दलाली, मुनाफे में हिस्सेदारी, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता फैलाने के बजाय सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उठाकर और उन पर संवाद की स्थितियां बनाकर कुछ बेहतर करने के प्रयास में लगा रहता है। यही बातें इस पुस्तक के अधिकांश लेखों में दिखलाई पड़ती है।

          वे 'मन की बात' नहीं करते। संवाद करना चाहते हैं- पाठकों से, लेखन से संवाद करना चाहते हैं। लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए संवाद का होना जरूरी है। यहां वे खुले मन से महावीर के स्यादवाद या सापेक्षतावाद का अनुसरण करते लगते हैं।

       हिम्मत सेठ, लोहिया के विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित है। उसे स्वीकारते भी है। और यही बात उनके लेखों में दिखलाई पड़ती है। लोहिया की लोकसभा में की गई चर्चित बहस- 'सप्त क्रांति', 'दाम बांधो नीति' 'अंग्रेजी हटाओ,' 'तीन आना बनाम पन्द्रह आना'- जैसे अनेक भाषणों का प्रभाव उनके इन लेखों पर दिखाई देता है। 60 के दशक का अंत आते-आते वे श्रमिकों की परेशानियों से रूबरू हुए। तब के खांटी समाजवादी- यूनियन नेता जॉर्ज फर्नांडीज के साथ जुड़े। तब के जार्ज ने सत्ता का नशा नहीं चखा था। उनका लड़ाकू रूप अलग था। उन स्मृतियों और यादों के साथ अपने आलेख-"मजदूर-मजदूर भाई-भाई, लड़ कर लेंगे पाई- पाई" में मजदूरों की न्यूनतम जरूरत की मांगों पर प्रशासन की उदासीनता को वे प्रभावी तरीके से उजागर करते हैं।

         शिक्षा और स्वास्थ्य नागरिकों का मौलिक अधिकार होना चाहिए। इनकी विसंगतियां, शिक्षकों की कमी, शिक्षा मित्रों की भर्ती, शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधा के गिरते स्तर, बजट में कमी पर समाज को चिंतित होना चाहिए। अपने 8-10 लेखों में उन्होंने इस बात को बखूबी उठाया है।

            लोकतंत्र पर मंडराते खतरों पर वह समय-समय पर अपनी कलम चलाते रहे। 'यह कैसा लोकतंत्र?', 'क्या करें ऐसी संसद का', 'लोकतंत्र पर मंडराता खतरा' जैसे 8-10 लेख इस विषय पर लिखे हैं। उन्होंने जब यह लेख लिखे थे तब से लेकर अब तक स्थितियां और खराब ही हुई है। इसलिए उनका लिखा आज भी प्रासंगिक है। जैसे

-'इस देश के प्रधानमंत्री पर रोज कितना खर्च होता है? जो लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।' 

-'विचारधारा का अंत हो गया। अब राजनीति बिना विचारधारा के ही चल रही है।' 

-'यह कैसा लोकतंत्र है? जहां प्रश्न भी नहीं पूछ सकते।'

-'आरक्षण रोजगार पैदा नहीं करता अर्थव्यवस्था पैदा करती है रोजगार'

-'यदि एक राजनीतिक दल नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ। फिर जनता  बेवकूफ क्यों बन रही है?'

            हर बार आप उनकी बातों से सहमत हो ऐसा जरूरी नहीं है। 'आरक्षण के सवाल पर एक दृष्टि'- आलेख में वे लिखते हैं कि- "संसद ऐसा कानून बनाएं की एक व्यक्ति एक प्रकार का ही व्यवसाय कर सके।"(पृष्ठ 12) जिस देश में रोजगार के ठिकाने नहीं है, आदमी के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुश्किल हो तो ऐसी मांग बेमानी लगती है।

          समाजवादी विचारधारा से वे प्रभावित चाहे रहे हो मगर लिखते वक्त वे समाजवादियों से भी कोई लगाव नहीं रखते। निष्पक्ष होकर ही लिखते हैं- "हमें बिरला-अंबानी, सोनिया-मनमोहन, अटल-आडवाणी, लालू-मुलायम के खिलाफ लड़ना होगा। क्योंकि ये यथा स्थिति बनाए रखना चाहते हैं।" (पृष्ठ 19) या- "अब तो ठाकुर अमर सिंह के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी में भी राजा महाराजा और पूंजीपति न केवल सदस्य बन रहे बल्कि उन्हें लोकसभा राज्यसभा में भेज कर उपकृत किया जा रहा है।" (पृष्ठ 24)

          सामान्यजन की गुलामी की मनोवृत्ति और राजा महाराजाओं की सामंतवादी सोच पर भी वे समय-समय पर कटाक्ष करते रहते हैं। इस कारण वसुंधरा राजे उनके निशाने पर रही है। "कौन से महाराणा, कैसे महाराणा, कहां के महाराणा" आलेख इस मनोवृति पर तीखा प्रहार करता है।

        'नई सरकार की प्राथमिकताएं', 'ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था की वास्तविकता', 'अनावश्यक विज्ञापनों का बढ़ता प्रचलन', 'गांधी के देश में बालश्रम उन्मूलन की चर्चा क्यों', 'लोकतंत्र का प्रहरी मीडिया', 'खादी केवल वस्त्र नहीं है'- जैसे लेख अपना प्रभाव छोड़ते हैं और आज भी प्रासंगिकता बनाए रखते हैं।

        समाचार पत्रों के संपादकीय लेख तात्कालिक परिस्थितियों समस्याओं पर लिखे जाते हैं। परिस्थितियां बदलने पर, समय के साथ नेताओं के पलटी खा जाने पर वह लिखा हुआ अपना प्रभाव खो देता है। अन्ना आंदोलन, केजरीवाल, आप पार्टी से जुड़े आलेखों में इन्ही कारणों से संपादक के बदलते विचारों को साफ-साफ देखा जा सकता है।

         बाबाओं, महामंडलेश्वर के घूर्तरूप को उजागर करने में वह पीछे नहीं रहे। 

        10 जनवरी 2008 से 26 दिसंबर 2018 के 10वर्षों के बीच के चुने हुए 127 आलेखों को इस पुस्तक के 320 पेज में समेटा हुआ है। प्रूफ की गलती के चलते संपूर्ण पुस्तक में 'श' के स्थान पर 'ष' का उपयोग हुआ है, जो कोफ्त पैदा करता है। लेखों के नीचे क्रमष:(क्रमशः) का प्रयोग ऐसा लगता है जैसे कोई आवेदन पत्र पढ़ रहे हो। कई स्थानों पर शब्दों को तोड़ कर लिखा गया है। कुछ और प्रूफ की गलतियां हैं जिन्हें प्रकाशक टाल सकता  तो अच्छा होता। 

         आज जब टीवी चैनल, अखबार गोदी मीडिया का  तमागां  लगा, बेशर्म मालिकों और सरकार के गठजोड़ के चलते पत्रकारिता का धर्म भूल गये है। बेमतलब के मुद्दों में उलझा कर समाज के ताने-बाने को नष्ट कर रहे हैं। आम आदमी को परिदृश्य से ही गायब कर दिया गया है। ऐसे समय में 'सच का सामना'- अंधेरे में दीपक जलाकर रोशनी करने का प्रयास है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।


समीक्षित पुस्तक- सच का सामना

लेखक- श्री हिम्मत सेठ 

प्रकाशक- इंडिया नेट बुक्स, सी- 112, सेक्टर 19, नोएडा 201 301 

मूल्य- रुपए 550


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