किस्सा प्रेमचन्द का-'पखाल थोड़े ही बांधे है!'

बात स्वतंत्रता के पहले के उन दिनों की है, जब हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ा था। बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' उन दिनों 'प्रताप' के संपादक थे। एक दिन प्रेमचंद जी 'प्रताप' के आफिस गये। 'प्रताप' में एक उप-संपादक विवादी मनोवृत्ति के थे।

बातचीत में हिंदू-मुस्लिम प्रश्न उठ आया। उस उप-संपादक ने आवेश में आकर कहा-“इस सांप्रदायिकता को रोकने का अन्य कोई उपाय नहीं है। अब हमें ईंट का जवाब पत्थर से देना होगा, तभी काम चलेगा।"

प्रेमचंद जी मुस्करा कर सुनते रहे। जब उन महाशय की द्वेष वाणी रूकी तो वे सामान्य स्वर में बोले- "अरे भाई, इस समय मुसलमानों का मानस रोगयुक्त है। वे जैसे सन्निपात में हैं। तब क्या तुम भी पागलपन करोगे ?और सो भी जानबूझ कर। नहीं, हमें अपने को इस तरह राग-द्वेष के वशीभूत नहीं होने देना चाहिए। पागलों के साथ हम भी पागल बन जायेंगे, तो कैसे काम चलेगा।"

वे महाशय बल खा कर पुछ बैठे-"क्यों साहब, अगर पागल हमारे सामने पेशाब करे तो हम क्या करें?"

प्रेमचंद जी ने शांति से कहा-"भाई, तनिक दूर हट कर खड़े हो जाओ।"

वे बोले- “और अगर वहां भी आ कर यही हरकत करे तो?"

तब प्रेमचंद जी बोले- “जरा और दूर हट जाओ"

वे महाशय थे पूरे हुज्जती। फिर पूछ बैठे-“वहां आ कर भी असभ्यता की तो?"

प्रेमचंद जी ने उत्तर दिया- “अमा, यह कैसे हो सकता है? वह भला मानस कोई पखाल* थोड़े ही बांधे है। जो यहां-वहां सब जगह मूतता ही जायेगा।"

वे सज्जन खिसिया कर रह गये।

***

*पखाल- मशक (बैल के चमड़े से बना हुआ थैला। जिसमें पानी भरकर पहले छिड़काव किया जाता था।)


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