प्रेमचंद की जयंती पर "पंच परमेश्वर कहानी -नए संदर्भ में

जुम्मन शेख, खाला, अलगू चौधरी, समझू साहू, रामधन कब के मर खप गए थे।

गांव ने बहुत प्रगति कर ली थी। गाय मां बन गई थी, घर में बैठी मां लावारिस हो गई थी। गौ-माता के लिए हत्या हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी। मशीनों के आ जाने से हीरा-मोती खेतों के काम के लायक नहीं रहें। नंदी महाराज को अब खुला छोड़ दिया जाता। सड़कों पर वह कहीं भी, कभी भी सींग भिड़ा लेते। लोग कभी घायल होते तो कुछ प्रभु दर्शन को पहुंच जाते। सोच विचार व्यवहार में बहुत बदलाव आ गया था। अब भी अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी दरे लगती थी पर बुरे काम की सिद्धि में यह बात नहीं थी।

समाज में भ्रष्टाचार, अनैतिक कामों, सेक्स कांडों को अब हीन नजरों से नहीं देखा जाता। अत्याचारों का यदा-कदा विरोध होता तो पुराने कांडों को खोद खोद कर निकाला जाता या दूसरों के छोटे-मोटे अत्याचार को इतना बड़ा बनाकर चित्रित किया जाता कि आज का बड़ा अत्याचार भी शर्मा कर छोटा हो जाता।

जुम्मन शेख, अलगू चौधरी की पीढ़ी कब की भगवान को प्यारी हो गई थी। उनके बेटे-बेटी भी कब्र में पांव लटकाए बैठे थे। पौतो के हाथों में बागडोर थी। अलगू के पोते फलगू और जुम्मन के पोते सलीम में अब पहले जैसा भाईचारा नहीं था। फलगू का बेटा कभी ईद पर सलीम के बेटे को मुबारकबाद दे देता तो फलगू बिफर जाता। यही हाल सलीम का होता जब उसका बेटा दीपावली मनाता।

नफरत की बेल, घृणा के माहौल में फल फूल रही थी।

फलगू का बुढ़ा बाप सलगू संपत्ति पर सांप की तरह बैठा था। वह फलगू के व्यवहार, चाल चलन से खुश नहीं था। एक रात फलगू ने जोर जबरदस्ती, मारपीट कर सम्पत्ति के कागजातों पर सलगू के दस्तखत करवा लिए। धीरे धीरे साज सम्हाल भी बंद कर दी।

बुड्ढा चिल्लाया, रोया, गांव के लोगों से गुहार लगाई। कौन सुनता? सब अपने में पड़े थे। अपनी जिंदगी की परेशानी में दूसरे की परेशानी कौन मोल ले।

आखिर सलगू ने पंचायत बुलाने का फैसला किया। लोगों ने ना-नकूर की पर न्याय के लिए पंचायत में आने को तैयार हो गए।

फलगू ने सलगू से कहा- "चलो, पंच चुन लो तुम। नहीं तो उस लोक में भी तुम्हारी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।"

"पंच का काम तो दूध का दूध और पानी का पानी करना होता है। तुम कहते हो तो मैं ही पंच नियुक्त करता हूं-सलीम को।"

सलीम का नाम सुनकर फलगू को झटका लगा। फिर उसका शातिर दिमाग गणित बिठाने लगा। सलीम को एक को-ऑपरेटिव सोसायटी का अध्यक्ष बनना था। फलगू और उसका गुट उसे समर्थन नहीं दे रहा था। फलगू को आपदा में अवसर दिखाई दिया। सलीम अध्यक्ष बने या कलीम? फलगू को क्या फर्क पड़ना था!

फलगू बोला-"सलीम को बनाओं या जसदन को। मुझे क्या? सोसायटी का अध्यक्ष बनने का भी मोह नहीं तो मैं संपत्ति का क्या करूंगा।"

सलीम ने मना किया। बोला- पहले ही रिश्ते खराब है और खराब क्यों करवाते हो!" सलगू ने खाला का वाक्य दोहरा दिया- "क्या बिगाड़ के डर से न्याय की बात न कहोगे?"

हां तो करना ही था।सलीम ने इशारे को जो पकड़ लिया था। सलीम और फलगू के बीच आंखों आंखों में बात हुई। वह पंच के पद पर बैठ गया।

उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। संकुचित विचारों में सुधार हुआ। सलीम ने सोचा इस बार मैं न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूं। ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता। पंच पद आज है, कल नहीं। अवसर जो आज है उसका असर तो अभी के फैसले पर है।

और उसने फैसला सुना दिया।

जिन्हें ईद दिवाली साथ में मनाने में समस्या थी रात में वे ही सलीम और फलगू अपने यारों के साथ दारू पार्टी कर रहे थे।

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