श्रद्धांजली-चले जाना जितेंद्र का

अक्खड़, मुंहफट, बेलाग, विपन्न, अकेला, संवेदनशील जितेंद्र चौहान नहीं रहा। यह उसकी एक पहचान हो सकती है। दूसरी पहचान साहित्यिक पत्रिका 'साहित्य-गुंजन', 'गुंजन-सप्तक' के संपादक; पार्वती प्रकाशन के मालिक और संवेदनशील कवि के रूप में भी है।

80 के दशक से मेरा उससे परिचय था। 1960 में पारा(अजमेर) में उसका जन्म हुआ। स्कूली शिक्षा खंडवा में हुई और बाद में पिताजी का तबादला रामपुरा होने पर बीए, रामपुरा (नीमच) से करने के लिए आ गया। 'आहा! जिंदगी' का संपादक- यशवंत व्यास भी तब रामपुरा में ही था।वह भी अपनी स्कूली शिक्षा जावरा से पूरा कर चुका था। साहित्य, लेखन का कीड़ा इन्हें परेशान कर रहा था। रामपुरा में साहित्यिक माहौल ना के बराबर ही था। मनासा तब साहित्यिक गतिविधियों के लिए जिले में नाम रखता था। यूं तो तब भी लेखकों के अपने-अपने आकाश थे। जिसके वे सूरज थे। फिर भी माहौल था। अक्सर रविवार को जितेंद्र मनासा आता था। छुट्टियों में जब मैं वहां होता तब उससे मुलाकातें होती। घंटों चाय की गुमटी पर या गुड-गुड पान वाले के यहां बैठकें जमती। फिर मैं नौकरी करने गुजरात चला गया। मालूम पड़ा कि यशवंत ने 'स्वदेश' में एक कालम चालू किया, जितेंद्र ने 'नवभारत' को पकड़ा। जितेंद्र ने तब पापा के माध्यम से मुझसे गुजरात/सौराष्ट्र के जनजीवन पर लिखने का सुझाव पहुंचाया था। फिर यशवंत और जितेंद्र दोनों ही 'नईदुनिया' में चले गए। एक संपादक मंडल में और दूसरा प्रूफ्ररीडिंग में। जितेंद्र ने प्रूफ्ररीडिंग का काम ना संभाल कर संपादन संभाला होता तो उसकी ऊंचाईया कुछ और होती। भाग्य का लिखा होगा या बेरोजगारी का पट्टे से मुक्ति पाने की मजबूरी रही होगी। फिर लंबे समय तक रिश्ता निशब्द रहा।

2012-13 में 'हंस' में 'गुंजन' का विज्ञापन और फोन नंबर देखा। मैंने फोन किया। बोला- 'विवेक मेहता। तुम्हारी गुंजन का विज्ञापन देखा।'

ना कोई राम-राम, ना श्याम-श्याम। उत्तर मिला-'पता भेजो। पत्रिका भिजवाता हूं।' फिर मंगल जी के बारे में जानकारी चाही। मैंने उनके देहांत का समाचार दिया। बोला- 'उन पर सामग्री भिजवाओ। मम्मी से लिखवाओ।'

मैंने उत्तर दिया- 'वह नहीं लिख पाएगी।'

'तो तुम लिखो।'

15-20 पेज की मंगलजी पर सामग्री उसने गुंजन में प्रकाशित की। कभी फोन आ जाता था- कविताएं भेजो, लघुकथाएं भेजो ,कहानी भेज दो, मैं अपनी सुविधा से उपयोग में लाऊंगा। ज्यादा कोई बात नहीं और अपनी सुविधा के अनुसार 'गुंजन-सप्तक', 'साहित्य गुंजन' में उनका उपयोग करता।

उससे मुलाकातें भी हुई। परिस्थिति की कुछ जानकारी मिली, कुछ समझी। 'नईदुनिया' छोड़ने के बाद 3000 की पेंशन में घर चलाना मुश्किल था। पार्वती प्रकाशन के नाम से किताबें प्रकाशित कर कुछ कमा लेता। गुंजन का प्रकाशन खर्चीला साबित होता जा रहा था। पत्रिकाएं आजकल पढ़ता ही कौन है? खरीदना तो दूर की बात! राजकुमार 'राजन', अखिलेश पालरिया जैसे कुछ दोस्त/लेखक सहयोग कर देते और पत्रिका निकल जाती। या फिर कुछ खुद ही दंद-फंद कर लेता। अशोक वाजपयी, ज्ञानरंजन, प्रभुजोशी जैसे अनेक नामी लेखकों से उसका परिचय था। परंतु झगड़े ज्यादा चलते, लाभ कब मिलता। विज्ञापन का तो सवाल ही नहीं। पुस्तकों के स्टाल लगाकर किताबे बेचता। अकेला होता जाता।

कभी कुछ अच्छा होता तो भावुक होकर सपने देखता। फिर पैसों की कमी और अपनी तनी रीढ़ के कारण उन्हें टूटते देखता। यह उसकी कविता में झलक भी जाता-

'मेरे शब्दों की रीढ़ लोहे की है/ जीभ और जुबान तलवार की/ मेरे शब्द झुकते नहीं/ रुपए-यूरो के सामने/ मेरे शब्द स्वार्थी सम्राट से/ तालमेल नहीं बिठाते।/ मेरे शब्द लड़ते हैं बाज की तरह/ शेर की तरह दहाड़ते हैं/ चाहे टूट कर बिखर जाएं/ झुकते नहीं मेरे शब्द/ तुम्हारे शब्दों की तरह।' (बाज हैं मेरे शब्द)

उसके पिता जब रिटायर हुए तो उसकी ना-लायकी को देखते हुए रिटायरमेंट के पैसों से उसे इंदौर में घर खरीद कर दिया। यही उसकी सुरक्षा थी। रिटायरमेंट के बाद के दिनों में दो मंजिले मकान की नीचे की मंजिल में खुद रहता अकेला। बच्चे, पत्नी शायद ऊपर रहते। संबंधों में अलगाव सा ही था। वार त्यौहार पर भी बात नहीं होती। यह उसे कचोटता भी था। एक छोटा सा पामेरीयन उसका साथी था। जो कुछ साल पहले साथ छोड़ कर चला गया। इन सब के बीच वह सामान्य ही दिखता।

कोरोना लाकडाऊन के वक्त परेशानियां बढ़ गई थी। एक बार बोला- 'यार विवेक, मेरे पास पुस्तके रखी है। तुम्हें जो अच्छी लगे खरीद लो। हालत खराब है।'

मैंने कहा- 'लिस्ट भेज दो।'

फिर कहीं से कुछ व्यवस्था हो गई। उसने लिस्ट नहीं भेजी। अभी थोड़े दिन पहले ही अपनी तीन चार कविताएं पुस्तकों की कविताओं को संकलित कर 'अकेलेपन के अकाल में' नाम से कविता संकलन निकाला। उसमें उसकी एक कविता थी- 'अगले जन्म में'- अपने लिखे को/ खारिज करते हुए/ एक दिन चाट लूंगा हीरा/ कंप्यूटरीकृत शवदाहगृह में/ बेटा दबाएगा बटन/ और चला जाएगा आफिस

मैं बनकर खरगोश/ पहुंच जाऊंगा फूलों की घाटी/ अगले जन्म में/

धूप में नहाऊंगा/ स्वाद लूंगा नमकीन हवा का/ पहचानने लगूंगा/ तेरह फूलों की खुशबू/ अगले जन्म में।

और इस सोमवार 17 जुलाई को की रात को वह चुपचाप चला गया। नींद में ही। श्रद्धांजलि देने के अलावा मैं और क्या कर सकता हूं!

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