व्यंग्य - शवासन में है नेताजी
मैं अपने परिचित डॉक्टर के पास बैठा था। वह एक मरीज को देख रहे थे। मरीज अपनी समस्या बता रहा था तो उन्होंने पूछा-“आपको यह सब कष्ट क्यों है? क्या आप मानते हैं की यह कर्मों का फल है?
कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था - “आधुनिक भारत की संस्कृति एक ऐसे शतदल कमल के साथ उपमित की जा सकती है, जिसका एक-एक दल एक-एक प्रांतिक भाषा और उसकी साहित्य संस्कृति है। किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा की हानि होती है। हम चाहते हैं कि भारत की सब प्रांतिक बोलियां जिस में साहित्य सृष्टि हुई हो अपने-अपने घर की रानी बनाकर रहें।”
अपने आप को अपराधी महसूस करते हुए उन्होंने फोन रख दिया और निराशा हो, माथा पकड़कर बैठ गए।
चांदनी रात थी। आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। मंद-मंद हवा भी बह रही थी। वातावरण में उमस थी। सब लान में कुर्सी पर बैठे थे। उन्होंने रुमाल से पसीना पौंछा और बोले- "आजादी का मतलब यह तो नहीं कि आराम करें ! या मनमानी करें ! जो भी गलत हो रहा है देखते रहे? उसका विरोध ना करें ? उसे ठीक करने का प्रयास न करें ? बेटा, सत्ता पर लगाम जरूरी होती है। अंग्रेजों से लड़े तो राजनीतिक स्वाधीनता पाई। मगर सामाजिक और आर्थिक स्वाधीनता? स्वाधीनता तो वैसे भी मन की स्थिति है। उसका दायरा जीवन व्यापी है। इस कारण कई खतरे है।"
अब तो बच्चे नौकरी से घर इसी शर्त पर आते हैं कि घर पर वाई-फाई हो। वाई-फाई में स्पीड हो, कनेक्टिविटी हो। ‘वर्क फ्रॉम होम’ हो सके। इस कारण उसे भी वाई-फाई की जरूरत पड़ी। लोगों ने सुझाया ‘पवनपुंछ’ अच्छा है। तो उसने लगवा लिया। उपयोग में लेते-लेते उसे भी अब आदत हो गई। उसके बिना काम नहीं चलता।
संसार में मुकम्मल जहां किसी को भी नहीं मिलता। नहीं मिलें। पर, ऐसे दिन भी देखने को तो ना मिलें।
‘यू सी’, या ‘आई विल पुट इट दिस वे’- कहते हुए वे अक्सर मीटिंग में बॉस या प्रभावशाली व्यक्ति की इच्छाओं को घुमा फिरा कर रेखांकित कर देते और ‘गुड़ लिस्ट’ में कुछ पायदान ऊपर उठ जाते। उनका हमेशा यह भी प्रयास रहता था कि कोई ना कोई समस्या हर वक्त बनी रहें। और उसके हल के लिए उनकी जरूरत पड़ती रहें। समस्याएं खत्म हो जाती तो वे नई खड़ी करवा देते- ‘चोर से कहें चोरी कर और साहूकार से कहें जागते रहो’ वाली लोकोक्ति को क्रियान्वित करते हुए।
इस बार भी बुढ़ाऊ जान छोड़ने से रहें -बड़के के मन में विचार ऊभरा। फिर जाना-आना पड़ेगा। कल से बहनें, बेटी, दामाद सब पूछ रहे हैं- ‘ क्या करें? कब तक रुके? घर में बच्चे अकेले हैं।’
अनुभव बहुत कुछ सिखा देता है इसलिए अब चुनाव की ड्यूटी से बचने के लिए उसने भाग दौड़ करना बंद कर दिया था। उन दो-तीन दिनों के लिए वह पूरी तरीके से अपने आप को भाग्य के भरोसे, भगवान को याद करते हुए छोड़ देता था।
स्वार्थ,लोभ,डर के चलते जहांगीरी घंटे और पंच परमेश्वर वाली न्याय की आभा धुंधली पड़ने लगी थी। मुकदमे ही मुकदमे निपटाते-निपटाते न्याय की देवी पर गर्दिश की परतें जमने लगी थी। उसकी आंखों पर चाहे काली पट्टी थी, पर कान तेज थे देवी के। उसके हाथ में थमी तलवार दो धारी थी। यह अलग बात है कि तलवार की धार की तीक्ष्णता कम-ज्यादा थी। इसका असर तराजू पर लोगों को दिखता।
"जब से वर्ल्ड बैंक का नाम जुड़ा है तब से ही संस्थान की हालत देश जैसी हो गई। सारा भाईचारा समाप्त। दोस्ती का ढोंग। पांव छूने के बहाने पांव खींचने का काम होने लगा। अदृश्य शतरंज की बिसात बिछी हुई है। सब लोग चालें चल रहे हैं। कई खिलाड़ी मैदान में हैं। कई बार ब्रिज की तरह एक दूसरे के पार्टनर बन जाते हैं। कुछ काल्स देते हैं। फिर अचानक दुश्मन बन जाते हैं। हर एक का एक ही ध्येय है। पैसा कमाना। दूसरों को नीचा दिखाना। यह तो अच्छा हुआ कि गांधी जी ने असहयोग आंदोलन के दौरान साधन की पवित्रता को लेकर आंदोलन वापस ले लिया अन्यथा हम स्वतंत्रता की और ज्यादा वर्षगांठ मना रहे होते। और मूंदड़ा कांड, बोफोर्स, शेयर, अयोध्या, दंगे, रथयात्रा जैसे छोटे-मोटे मामले हमें विचलित नहीं कर रहे होते। विश्व बैंक हमें पूरी तरह से मार चुका होता। धीमा जहर है। मीठा भी। खाने वाले को आनंद आता है। और कब सब समाप्त हो जाता है, मालूम भी नहीं पड़ता। यही हाल हमारे यहां भी है।" खीज भरे स्वर में मिस्टर सतपाल बोले।
कोई बड़ी समस्या नहीं थी। बस चश्मे के नंबर को लेकर थोड़ी सी परेशानी थी। उसे नंबर चेक करवाना था। नंबर भी कोई खास नहीं था। कैटरेक्ट की शुरुआत हो चुकी थी इस कारण थोड़े थोड़े दिनों में दिखलाई देने में परेशानी हो रही थी।
एक बार फिर से किसान ने अपने लड़कों को लकड़ी के गट्ठर के द्वारा एकता की सीख देने की कोशिश की। इस बार लड़के उससे सहमत नहीं हुए। उनका मानना था कि जमाना बदल गया। अब लकड़ी का गट्ठर भी काटा जा सकता है और अलग-अलग रहते हुए झगड़ों का दिखावा करते-करते सहयोग कर ज्यादा उन्नति की जा सकती है। जैसे- गठ्ठर पर हमला करते वक्त कुल्हाड़ी का हत्था बन जाए और ऐनवक्त पर उससे अलग हो जाए।
काल बीतें ।
चूहा रोज महात्मा जी की कुटिया में घुस जाता था। कभी डर कर महात्मा जी के पीछे छुप जाता। कभी उनके चारों ओर चक्कर लगाता। महात्मा जी को भी उससे प्यार, लगाव हो गया था। एक दिन वह घबराया सा कुटिया में घुसा तो महात्मा ने पूछा- “क्या हुआ?”
वे अंतर्मुखी व्यक्ति थे। अपने काम से काम रखते थे। भीड़ में खुद को असहज महसूस करते। इस कारण बहुत ज्यादा सामाजिक नहीं हो पाते। ज्यादा जरूरी होता तो मजबूरी में सामाजिक कामों में भाग लेते। मेहनत से,पेट काट कर बच्चों को पढ़ाया। वे सब अच्छी नौकरी पर लग गये।
ड्राई एरिया में दारू की बोतल और आम की पेटियों को पहुंच कर उन्होंने अपना स्थान ‘आम’ से खास बना लिया था। थोड़ी बहुत अगर कमी रह जाती तो चापलूसी, चाटुकारिता से पूरी कर लेते। बड़े लोगों से हुई अपनी चर्चा की चुगली चटकारे लेकर इस तरह करते कि सामने वाला उनके प्रभाव में आ जाता। गुर्राने और दुम दबाने के बीच सामंजस्य बिठाना वे जानते थे। यह सब उनका अलग ही प्रभाव बना देता।