लघुकथा- गलत मन्नत

बहुत दिनों बाद रास्ते में वे मिल गए। उम्र तो अपना असर दिखा रहीं थी। लम्बी बीमारी के बाद बिस्तर से उठकर उन्हें यूं चलता-फिरता देखकर अच्छा लगा।

           मैंने पूछा- ‘किधर जा रहे हैं? छोड़ दूं?’ 

           वे बोले- ‘चाय पीने’ 

          थोड़ी सामान्य बातचीत के बाद उन्होंने पूछा- ‘यहां से जबलपुर के लिए कोई बस है?’ 

       ‘इतनी दूर की तो कोई बस नहीं है। ट्रेन है। जिससे आप आते-जाते हैं। पर आपको वापस घर क्यों जाना है?’ 

      ‘बहुत दिन हो गए। कुछ काम भी निपटाना है। घर भी देखना है।’ 

       ‘इस उम्र में अकेले क्या करेंगे वहां। फिर बीमार पड़े तो! जैसा भी है, गम खाइए और चलाईये।’- मैंने कहा। 

      ‘खाना तो शांति से मिलता नहीं, गम ही खाना है तो वही खा लेंगे।’- भर्राई आवाज में वे बोले। आंखें भी नम हो गई थी।

       केन्द्रीय सरकार के एक समय के प्रभावी आदमी का बेचारगीभरा बुढ़ापा था। ज्यादातर घरों की यही कहानी है, इसका आभास था मुझे। मेरा उनसे बहुत पुराना परिचय था। पुत्रवत स्नेह देते थे। हम जानकारियां भी साझा करते थे। अब उनसे यों मिलना मेरे दोस्त और उसके परिवार को पसंद नहीं था। इस कारण अस्पताल की मुलाकात के बाद मैं उनके हालचाल लेने घर भी नहीं गया था-क्यों उनकी मुश्किलें बढ़ाई जाए! 

       ‘इतनी कमजोरी में 700 किलोमीटर का लंबा सफर अकेले कैसे करेंगे? और वहां पर भी परेशानियां तो रहेगी। चला लीजिए।’ 

        ‘क्या चलाऊ! बात करने में उम्र का लिहाज भी करते नहीं। मेरे बैंक के सभी कागज ले लिए। पेंशन भी खुद निकाल लेते हैं। तीन-चार हजार मुझे पकड़ा देते हैं, जैसे एहसान कर रहे हो।’ 

          वे जितना बोल रहे थे स्थिति उससे बहुत ज्यादा खराब थी, मुझे एहसास हो आया।

         ‘पेंशन कितनी आती है अंकल’ 

        ‘90 से ऊपर की ही थी। अब तो और भी बढ़ोतरी हुई होगी। 85 साल का जो हो गया हूं।’ 

         मेरे दोस्त पर विभागीय जांच चल रही थी। इस कारण आर्थिक परेशानी के दौर से गुजर रहा होगा। यह सोच मैंने कहा-‘शायद घर के हालात के चलते पेंशन निकल रहा होगा।’ 

       ‘पैसे तो बीमारी के पहले से मैं दे ही रहा था। बीमारी का खर्चा भी मैंने उठाया। उसके घर के खर्चे के पैसे भी देता था। और चाहिए तो मांग लेता। अस्पताल में क्या भर्ती हुआ सब छीन लिया- घर के कागज, मेरे पेंशन के पेपर, आधार कार्ड, एटीएम कार्ड सब। इसके पैदा होने के लिए तुम्हारी आंटी ने बहुत मन्नते मानी थी। अब सोचता हूं कि काश मन्नत पूरी नहीं हुई होती तो अच्छा था।’   

         मैं क्या कहता। उनकी तरह मैं भी इस मामले में विवश था। अपनी इस विवशता पर उस वक्त परेशान भी हो उठा।

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