इस बार भी बुढ़ाऊ जान छोड़ने से रहें -बड़के के मन में विचार ऊभरा। फिर जाना-आना पड़ेगा। कल से बहनें, बेटी, दामाद सब पूछ रहे हैं- ‘ क्या करें? कब तक रुके? घर में बच्चे अकेले हैं।’
छुटका तो दार्शनिक जवाब दे देता है- ‘देख लो, जो स्थित है, आप लोगों के सामने है।’
तब सवाल की दिशा उसकी ओर मुड़ जाती। उसका अपना भी तो यही सवाल था। क्या जवाब देता?
यह तो हर बार की परेशानी हो गई। थोड़ी तबीयत नरम क्या दिखती -छुटका फोन खटकाकर सूचित कर देता। वह उन्हें आने के लिए नहीं बोलता। सूचना दे अपनी जान बचा जाता और उन सबकी जान फसा जाता।
बहुत पहले अपनी नौकरी, परेशानियों का खाखा खींचकर बड़के ने बुढ़ाऊ को साथ रखने की अपनी असमर्थता जाता दी थी। छुटके ने कोई सवाल नहीं किया। चुपचाप बीमार बुढाऊ की साज-संभाल, देखेरेख करता रहा। फोन पर वे सब लोग अपनापन, लगाव, चिंता, सुझाव सब उडेल देते। ये लोग उस पर चढ़ न बैठे इसलिए छुटका, बुढाऊ जब ज्यादा बीमार होते तो उन्हें सूचित कर देना अपने फर्ज समझता।
बड़का सोचता, बुढाऊ जान छोड़े तो कुछ मालमत्ता हाथ लगे। इसके बजाय अभी तो आने-जाने में ही बार बार खर्चा हो रहा। ऊपर से बीवी अलग झल्लाती रहती।
अब तो बुढाऊ भुलने भी लगे। उसको तो पहचानते भी नहीं। छुटके का नाम ही उनकी जुबान पर रहता। पुराने किस्सों, पुराने यादों में भी। कभी भी उन्हें दोहराने लगते।
रात को कुछ ऊंचा नीचा न हो जाए इसलिए छुटके के साथ वह भी बुढाऊ के पास सोया। रात में बुढाऊ चीखें- ‘छुटके, मेरा मुंह क्यों दबा रहा है?’
छुटका नींद में से चौंक कर उठ गया। उसने देखा- बुढाऊ के पास घबराया सा बड़का खड़ा था।
संभावनाओं को नकारते हुए उसने इसे बुढाऊ का भ्रम माना।
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