अपने आप को अपराधी महसूस करते हुए उन्होंने फोन रख दिया और निराशा हो, माथा पकड़कर बैठ गए।
अपने मित्र को दो-चार दिन के लिए पैसे उधार तब दिए थे जब सोना तीस हजार रूपए तोला था। अब तो पचहत्तर हजार से भी ऊपर पहुंच गया। मगर मित्र के दो-चार दिन नहीं गुजरे। जब जरूरत थी तो दोस्त मीठा बोल रहा था। गिड़गिड़ा रहा था। उस वक्त उसकी परेशानी को उन्होंने समझा, महसूस किया और अपनी जरूरतों पर लगाम लगाकर मानवता दिखलाई। घर वाले उधार देने के पक्ष में नहीं थे। उनकी नाराजगी भी झेली और दोस्त को सहयोग किया।
समय गुजरता रहा। बीच-बीच में वे याद भी दिलाते रहे। सामने वाला-‘बस 10 दिन में पेमेंट आ जाएगा। मैं दूध में धोकर आपके पैसे वापस कर दूंगा।’ वाला आश्वासन देता रहा और नई गाड़ी, नए मोबाइल, नये कपड़े खरीदता रहा। बस उनके पैसे लौटाने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे।
वक्त गुजरता रहा। मित्र ने तो अब उनका फोन उठाना भी बंद कर दिया। आज भी उन्होंने सात-आठ फोन किये। कोई उत्तर नहीं मिला। तो वे खुद को थोड़ा सा अपमानित महसूस करने लगे। इसी मनोदशा में उन्होंने मित्र के दूसरे परिचित से फोन लेकर नंबर घुमाया।
उधर से फोन उठाते ही वे बोलें -‘क्या नरेश भाई, हमारा फोन तो उठाते भी नहीं आजकल?’
सामने वाले ने उनकी आवाज पहचान ली। बोला- ‘ऐसा नहीं है। मैं अस्पताल में था। वहां नेटवर्क की प्रॉब्लम थी।’
‘तो बाद में आप लगा देते’
‘आप समझ नहीं रहे हैं। मैं जस्ट अभी निकला और यह फोन आ गया। मैंने उठा लिया।’
‘आपको लगा होगा मेरा फोन है तो पेमेंट मांगूंगा। इसलिए फोन नहीं उठा रहे।’
‘ऐसा नहीं है। सामने की पार्टी से पेमेंट आया नहीं इसलिए आपको किया नहीं। आ जाएगा तो कर देंगे।न्याय,धरम की बात है।’
‘कब? अब तो आप बात भी नहीं करते।’
‘यह तो आप मुझे टॉर्चर कर रहे हैं। मेरी तबीयत भी ठीक नहीं रहती। मैं टॉर्चर सहन नहीं कर पाऊंगा। मुझे कुछ हो जाएगा।’
यह सुनकर वह क्या करते! फोन बंद करना ही था।
और अपने आप को जरूरत के समय सहायता करने का अपराधी महसूस करते हुए उन्होंने फोन रख दिया।
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