(बैताल कथाओं का समापन पिछले शनिवार को हो गया था। उन पर विजय बैरागी की समीक्षात्मक टिप्पणी।
व्यंग लिखना संतुलन साध कर रस्सी पर चलने का प्रयास करने के समान हैं। पर व्यंग कथाएं लिखना तो तलवार की धार पर चलने जैसा दुष्कर हैं। विवेक मेहता की बैताल कथाएं पढ़कर कुछ ऐसी ही प्रतीति होती हैं। हर कथा मौजूं और अपनी धार में बहा ले जाने की सामर्थ्य रखती हैं। लगता है हम एक रोचक और कठिन धारा में बह रहे हैं। चुनौतीपूर्ण मनोभावों को इतनी सरलता से अभिव्यक्त किया जा सकता है, यह अनुठे रचना कौशल से ही संभव हैं। जो फॉर्मेट विवेक भाई ने चुना वह बाहर से बहुत सरल और मनभावन लगता है पर उसका निर्वहन इतना आसान भी नहीं है और लेखक ने ना सिर्फ उसे निभाया अपितु अपनी वैयक्तिक शैली से प्रभावी और महत्वपूर्ण भी बना दिया।
फिल्मी गीतों की पैरोडी बनाने जैसी आसान लगने वाली यह कोशिश जब अर्थों की परतें खुलती है तो लगता है- ये तो सच में भावपूर्ण, मनोरंजक और जबरदस्त मारक हैं। बीस कथाओं की यह यात्रा इस कठिन समय में बहुत दूरूह है पर रचना कौशल से लेखक ने इसे पठनीय और हृदयग्राही बना दिया।
कहानी कला के तत्वों के आधार पर तो ये कहानी संचय पूर्ण नहीं हो सकता पर अपनी शैली, भाषा की वक्रता और समसामयिक परिवेश को उद्घाटित करने की सामर्थ रचनाकार को अनुकरणीय बनाती हैं। कथोपकथन ही इन कथाओं का मूलाधार है जो इन्हें सहज और बोधगम्य बनाता हैं। लेखकीय मंतव्य को उजागर करता हैं। कहानी में घटना कुछ भी नहीं है, पर घटता बहुत कुछ हैं।
बैताल और राजा की पुनरावृति हर बार नया अर्थबोध देती हैं। पहली कथा- 'चलता रहेगा से' आरंभ क्रम अंत के 'असली राजा कौन?' पर थमा। पर क्यों निरंतर नहीं रह सका यह समझ में आता हैं। इन्हें एक साथ पढ़ने पर लग जाता है कि परिवेश का दबाव कहीं ना कहीं मन के उद्वेलन को आगे नहीं जाने दे रहा होगा। यह काल्पनिक स्थिति लगती है पर ठहराव को स्वीकारना बड़ा यथार्थ हैं। 'सत्ता भ्रष्ट होती है', 'डिप्रेशन में शिक्षा', 'ईमान-धरम' कथाएं सहृदय पाठकों का मन जीत लेती है तो 'नौटंकी', 'भस्मासुर', 'काला-सफेद' भाषागत प्रभाव का सुंदर नमूना बन पड़ी हैं। 'जंगल का राजा और मेमना' नई राह बनाती सी लगती हैं। कहानी के रूप, शिल्प पर रचनाकार अपनी छाप अवश्य छोड़ता है और यह सहज विश्वास जगाता है कि हिंदी पाठक जगत ने पूरे मनोयोग से इन्हें स्वीकार किया हैं।
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( मनासा निवासी, लेखन'84 और चुनौती स्वीकार के सहसम्पादक विजय बैरागी नाटककार,लेखक, विचारक है।)
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